Last Updated on 2 years by Dr Munna Lal Bhartiya
Biography In Hindi
तथागत गौतम बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति का मार्ग
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक तथागत गौतम बुद्ध का जन्म नेपाल के लुंबिनी नामक स्थान पर 563 ईo पूर्व में हुआ था। बचपन में इनका नाम सिद्धार्थ था। इनकी माता का नाम महामाया तथा पिता का नाम शुद्धोधन था, इनके जन्म के 7 दिन बाद ही इनकी माता की मृत्यु हो जाने के कारण का पालन-पोषण उनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया था।
तथागत गौतम बुद्ध का संक्षिप्त जीवन परिचय

सिद्धार्थ बचपन से ही कोमल और भावुक स्वभाव के थे, वह किसी को भी कष्ट में नहीं देख सकते थे। घुड़सवारी की दौड़ में भी जब इनका घोड़ा थक जाता था तो यह स्वयं उस घोड़े को रोक लेते थे और अपनी जीती हुई रेस हार जाया करते थे, बच्चों में खेलते समय भी कोई बच्चा उनकी वजह से दुखी ना हो इसलिए वह खेल में भी खुशी-खुशी हार जाया करते थे।
वह संसार में किसी को भी पीड़ा में नहीं देख सकते थे इसलिए वह स्वयं हार कर उन्हें जिता दिया करते थे। एक बार, जब इनके चचेरे भाई देवदत्त ने एक हंस पर तीर चला कर उसे घायल कर दिया और उस घायल हंस पर अपना अधिकार जताने लगे लेकिन सिद्धार्थ ने उस हंस के जख्मों पर मरहम लगाकर उसे बचा लिया, लेकिन देवदत्त हट करने लगे कि यह हंस मेरा है।
तब उन्होंने उसे उत्तर दिया कि मारने वाले से बचाने वाला हमेशा बड़ा होता है इसलिए यह हंस मेरा है उन्होंने हंस को देवदत्त को नहीं दिया। 16 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा नामक कन्या से हुआ, जिससे उन्हें एक पुत्र प्राप्ति हुई सिद्धार्थ और यशोधरा के पुत्र का नाम राहुल है।
कुछ समय पश्चात जब वह एक दिन बगीचे में सैर कर रहे थे तो उन्होंने ऐसा दृश्य देखा कि उनका मन विचलित हो उठा उन्होंने देखा कि एक बूढ़ा व्यक्ति वहां से गुजर रहा है, जिसके मुंह में एक भी दांत नहीं है सर के बाल सारे झड़ गए पूरा शरीर टेढ़ा हो गया है और वह एक लाठी के सहारे चल रहा है। दूसरे दिन उन्होंने एक रोगी को देखा जो बहुत कष्ट में था उसकी सारी जवानी को रोग खा चुका था, तीसरे दिन उन्होंने एक अर्थी देखी जिसे लोग चार कंधों पर उठाकर ले जा रहे हैं
तो यह दृश्य देखकर उनके मन में कई प्रश्न उत्पन्न हुए वह सोच रहे थे कि ऐसी जवानी किस काम की जो बूढ़ी हो जाए, ऐसा शरीर किस काम का जिसे रोग खा जाए और ऐसा जीवन किस काम का जिसका एक दिन अंत हो जाए।
यह सोच कर ही वह व्याकुल रहने लगे फिर एक दिन उन्होंने देखा कि उसी रास्ते से एक महात्मा वहां से जा रहा था जो कि बहुत ही खुश था उसे ना कोई दुख था और ना ही किसी की चिंता उन्होंने उस महात्मा से भेंट की और पूछा आप संसार में इतने सुखी कैसे हो तो उन्होंने बताया कि सांसारिक मोहमाया त्याग कर संसार में सारे दुखों और कष्टों का कारण सांसारिक मोह और माया है अगर कोई भी व्यक्ति सांसारिक मोह और माया त्याग दे तो उसके पास दुखी होने के कोई कारण नहीं रहेंगे ।
यह सब जानकर 29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने गृह त्याग दिया और सांसारिक मोह माया से मुक्त हो गए। बिना कुछ खाए पिए लगातार 6 वर्ष बीत गए तपस्या करते हुए लेकिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई, फिर एक दिन स्त्रियां वहां से एक गीत गाती हुई गुजर रही थी वह गा रही थी वीणा के तारों को इतना ढीला मत छोड़ो कि उनका स्वर बिगड़ जाए और इतना कसके मत पकड़ो कि उसके तार टूट जाएं यह गीत सुनकर उन्हें एक एहसास हुआ कि नियमित आहार से ही साधना सिद्ध होती है ना कि आहार त्याग ने से।
35 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ पूर्णिमा के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान मग्न बैठे थे, वहां एक सुजाता नाम की लड़की अपनी मन्नत पूरी होने पर सोने के थाल में गाय के दूध की खीर लेकर पीपल देवता को चढ़ाने आई तो सुजाता ने सिद्धार्थ को जब तपस्या करते हुए वहां देखा तो उन्हें लगा कि मानो स्वयं पीपल देवता ही शरीर रखकर बैठे हैं
सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर अर्पण की और कहा कि जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई उसी तरह आपकी भी हो उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सिद्ध हो गई उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया तभी से वह सिद्धार्थ से तथागत गौतम बुद्ध कहलाए, जिस पीपल वृक्ष के नीचे बुध्द को ज्ञान प्राप्त हुआ वह बोधि वृक्ष कहलाया और वह जगह बोधगया के रूप में जानी जाती है ।
महात्मा बुद्ध अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में कुशीनगर पहुंचे जहां 483 ई० वी पूर्व 80 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई, जिसे बौद्ध परंपरा में महापरिनिर्वाण नाम से जाना जाता है।