Last Updated on 2 years by Dr Munna Lal Bhartiya
महिलाओं की नायक सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले
भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले ऐसी महिला नायक थी, जिन्होंने निम्न जाति के लोगों और महिलाओं को समाज में सम्मान से जीवन जीने का अधिकार दिलाया।
सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले का जन्म कब और कहां हुआ
सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के नायगांव (वर्तमान में सातारा जिले) मैं हुआ था इनके पिता जी का नाम खंडोजी नेवसे पाटिल था जो कि पेशे से एक किसान थे इनकी माता जी का नाम लक्ष्मी था। 1840 में 9 वर्ष की उम्र में इनका बाल विवाह ज्योतिराव फुले के साथ हुआ था। ज्योतिराव फुले लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता व एक समाज सुधारक थे उन्होंने की सावित्रीबाई को पढ़ने के लिए प्रेरित किया और उन्हें पढ़ाया।
संघर्ष
यह उनके जीवन के हर संघर्ष में सावित्रीबाई के साथ कदम से कदम मिलाकर खड़े रहते थे। उस समय जातिवाद में अस्पृश्यता चरम पर थी और समाज में महिलाओं की स्थिति दयनीय थी उस समय सावित्रीबाई ने पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्वदेशी स्कूल 1948 में अपने पति ज्योतिराव के साथ शुरू किया। परंतु उन्हें इस स्कूल को चलाने में कई सामाजिक संघर्षों से गुजरना पड़ा लेकिन इन्होंने कभी हार नहीं मानी। सावित्रीबाई ने स्त्रियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया।
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बाल विवाह और सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियां के विरुद्ध संघर्ष
बाल विवाह, सती प्रथा, विधवाओं के बाल मुंडवाने जैसी अनेक सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ इन्होंने डटकर संघर्ष किया इन्होंने छुआछूत और जाति प्रथा के खिलाफ भी अपने पति के साथ मिलकर कड़ा संघर्ष किया और अनेकों आंदोलन चलाए व अन्य आंदोलनों का हिस्सा रही। जब सावित्रीबाई महिलाओं को शिक्षित करने के लिए स्कूल जाती थी तो उच्च जाति के लोगों के द्वारा उन्हें अपमानित किया जाता था लोग उन पर गाय का गोबर, मिट्टी व पत्थर फेकते थे। लेकिन सावित्रीबाई अपने रास्ते पर दृढ़ संकल्प होकर अपने पथ पर आगे बढ़ती गई और महिलाओं को सम्मान से जीने का अधिकार दिलाया। तथा अपने पति के साथ मिलकर विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहन किया।
1874 में ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने काशीबाई नामक एक विधवा ब्राह्मण स्त्री के बच्चे को गोद लिया और उस बच्चे का नाम यशवंतराव रखा। सावित्रीबाई का यह दत्तक पुत्र बड़ा होकर डॉक्टर बना। सन 1897 में बुलेसोनिक प्लेग नामक महामारी में महाराष्ट्र व उसके आसपास के इलाके में सावित्रीबाई ने इस महामारी के रोगियों की दवा की और पुत्र यशवंतराव से उनका इलाज करवाया परंतु प्लेग महामारी के रोगियों की सेवा करते हुए वे खुद भी उस बीमारी से अछूती नहीं रही और प्लेग महामारी से ग्रसित होने के कारण 10 मार्च 1897 में सावित्रीबाई का स्वर्गवास हो गया।